कबिता

- "पुरातन मानसिकता"- -
देख दाइ देख
बेसी नै बुझ
बेटी जाति दोसरक
अमानत छियै।

बेटी जाति पढलकै कतौ?
कतऽ देखलिही पढैत गे?
घरक काज सँ बडका काज,
कहियो नै करि सकैछै बेटी
आ तु कहैछी पढबै?

हे गलफर ओदाईर देबौ,
सुईया सँ मुह सिब देबौ,
मट्टी तेल छिटकऽ आगि लगा देबौ,
बेसी जौ बाजले।

घरक चारि दबाल भित्तर,
नारि सब दिन रहलै
आ रहतै
बुझले कि?

कचका कैरचीके,
धिपलेहा छोलनीके,
तिनछोरुवा जुवालीके,
मारि बिसरि गेलही कि?

धु गे पपियाहि,
धु गे कुलक्ष्मी,
तु त हमर नाक कटबेबही
कतौके नै रहऽ देबही।

हे भगवान,
हे हौ प्रभु,
किए इ राक्षसनीके?
जनम देलह
किए जनम देलह!!
@ विद्यानन्द वेदर्दी

#अपन_मिथिला

0 टिप्पणियाँ Blogger 0 Facebook

 
अपन मिथिला © 2016.All Rights Reserved.

Founder: Ashok Kumar Sahani

Top