कबिता

श्री शिव महापुराण केर कोटि रुद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंगक कथा निम्न प्रकारे लिखल गेल अछि –
राक्षसराज रावण अभिमानी त छलाहे , ओ अपन अहंकार के सेहो शीघ्र प्रकट करय वाला छलाह। एक बेर ओ कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिवक आराधना कs रहल छलाह। बहुत दिन तक आराधना कयलाक उपरांतो भगवान शिवहुनका पर प्रसन्न नहीं भेलाह, तखन ओ पुन: दोसर विधि सौं तप-साधना करय लगलाह। ओ सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत सौं दक्षिणक ओर सघन वृक्ष सौं भरल जंगल में पृथ्वी के खोधि गोट खाइध खोधलाह। राक्षस कुल भूषण रावण ओहि खाधि में अग्निक स्थापना कय हवन प्रारम्भ कs देलनि। ओ भगवान शिव के ओहिठाम अपना सामीपे मे स्थापित कयलन्हि । तपक हेतु ओ कठोर संयम आ नियम धारण केलन्हि।
गर्मी के समय में पाँच गोट अग्नि के बीच में बैस पंचाग्निक सेवन करईत छलाह, तs वर्षाकाल में मैदान में सुतई छलाह और शीतकाल में आकण्ठ (कंठ केर बराबर) जल के भीतर ठाढ़ भs साधना करैत छलाह । अहि तीन विधि के द्वारा रावणक तपस्या चलैत छल ।एहेन कठोर तप कयलो पर भगवान महेश्वर हुनका पर प्रसन्न नहि भेलाह । कठिन तपस्याक बादो जखन रावण के सिद्धि नहीं प्राप्त भयलन्हि, तखन रावण अपन एक-एक टा गरदैन काटि काटि शिव जी के पूजा करय लगलाह ।ओ शास्त्र विधि सौं भगवानक पूजा करैत गेलाह आ ओहि पूजनक पश्चात अपन एकगोट मस्तक कातथि आ भगवान के समर्पित क दैत छलथीन। एवं प्रकारे क्रमश: ओ अपन नौ गोट मस्तक काटि चुकलाह। जखन ओ अपना अन्तिम आ दसम मस्तक काटय चाहैत छलाह, तखन तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर हुनका पर सन्तुष्ट और प्रसन्न भs गेल छलाह । भगवान साक्षात प्रकट भs रावणक दसो मस्तक के स्वस्थ करैत पूर्ववत कs देलनि।
भगवान राक्षसराज रावण के ओकर इच्छाक अनरूपे अनुपम बल और पराक्रम प्रदान केलनि। भगवान शिवक कृपा-प्रसाद ग्रहण कयलाक उपरान्त नतमस्तक भs विनम्रभाव सौं ओ हाथ जोड़ि कहलाह– ‘देवेश्वर! अहाँ हमरा पर प्रसन्न होउ। हम अपनेक शरण में आयल छी और अपनेक लंका में हमरा संगे चलल जाऊ । अपनेक हमर मनोरथ सिद्ध कयल जाऊ ।’ रावणक कथन सुनि भगवान शंकर असमंजसक स्थिति में परि गेलाह। ओ उपस्थित धर्मसंकट के टालबाक लेल कुमोन भs बजलाह – ‘राक्षसराज! अहाँ हमर अहि उत्तम लिंग के भक्तिभावपूर्वक अपन राजधानी में लs जाउ, किन्तु अहि बातक ध्यान रखब- रास्ता में अहाँ अहि लिंग के यदि पृथ्वी पर कतोहू राखब, तs ई ओहीs स्थान पर अचल भs जायत। आब अहाँ के जे इच्छा हुए से करू ’
प्रसन्नोभव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम्।
सफलं कुरू मे कामं त्वामहं शरणं गत:।।
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन स:।
प्रत्युवाच विचेतस्क: संकटं परमं गत:।।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया।
नीयतां स्वगृहे मे हि सदभक्त्या लिंगमुत्तमम्।।
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै।
स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरू।
भगवान शिव के द्वारा ई सुनि रावण भगवान के लिंग लs लंकाक लेल विदा भेलाह, रास्ता मे भगवान शंकरक माया केर प्रभाव सौं बाट में हुनका मूत्रोत्सर्गक ईक्षा प्रबल भेलन्हि। सामर्थ्यशाली रावण एक गोट ग्वालाक हाथ मे शिवलिंग के पकड़ा मूत्रोत्सर्गक लेल बैसलाह। एक मुहूर्त बितलाक बाद ओ ग्वाला शिवलिंगक भार सौं बिचलित भs शिवलिंग के पृथ्वी पर राखि देलक। पृथ्वी पर रखैत ओ मणिमय शिवलिंग ओहिठाम स्थिर भs गेलाह।
निराश रावण लंका पहुंचि ई समाचार मंदोदरी के सुनोलनि, देवपूर के इंदरादि देवता ,ऋषि मुनि ई समाचार सुनि ओही स्थान पर पहुंचि शास्त्र विधि सौं महादेवक पूजा कयलनि। 
एवं प्रकारें बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंगक प्रादुर्भाव भेल आ देवता लोकनि हुनक स्थापना कयलन्हि।
तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै।
रावण: स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्।।
तच्छुत्वा सकला देवा: शक्राद्या मुनयस्तथा।
परस्परं समामन्त्र्य शिवसक्तधियोऽमला:।।
तस्मिन् काले सुरा: सर्वे हरिब्रह्मदयो मुने।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषत:।।
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा – नत्वा दिवं ययु:।।
संकलन एवं मैथिली अनुवाद: नीरज मिश्र मन्नू




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