कबिता

मनुक्ख कनी मनुक्ख सन होइतै

✍👤सृजन शेखर 'अज्ञेय'

ई दिन के साँझ कतय छै
 य राइतक भोर कखन हेतै
मनुक्ख कनी मनुक्ख सन होइतै

जराकऽ जीवन के सारा पर 
नाचै छी अशुभ के उतरी पहिरि के
लाश आ गिद्ध दूनू अपनहिं
जीवन छल कि खाली सपनहिं
मरघट सेहो कनी जी कऽ देखितै
मनुक्ख कनी मनुक्ख सन होइतै

बरखा भेलै कतबो तैयौ
धरतीक छाती फटले रहलौ
नदीक भीतर बैसल पाथर
सूखल जेना सुखले रहलै
बाजऽ चाहै छै धारा सेहो किछु
हावा कनी जँ रूकि कऽ सूनितै
मनुक्ख कनी मनुक्ख सन होइतै

फूल छलै ओहो ओतबे सुंदर
जे फूटि ने पेलै कोढ़ही सऽ
घोघक भीतर नुकाएल रहलै
डऽर छलै ओकरा सब दृष्टि सऽ
मूड़ी उठा कऽ भरल इजोत में 
ओहो भभाके हँसितै
मनुक्ख कनी मनुक्ख सन होइतै 

✍👤सृजन शेखर 'अज्ञेय'

०३/०६/२०१७।

कवि- सृजन शेखर 'अज्ञेय' जी

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